असम में गिद्धों को बचाने की नई पहल, संरक्षण में शामिल किए गए ग्राम प्रधान

असम में गिद्धों को बचाने के लिए ग्राम प्रधानों को शामिल किया गया।

Published · By Tarun · Category: Environment & Climate
असम में गिद्धों को बचाने की नई पहल, संरक्षण में शामिल किए गए ग्राम प्रधान
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असम में गिद्धों को बचाने के लिए एक नई और अहम पहल की गई है। यहां के एक जैव विविधता संरक्षण संगठन 'आरानयक' ने इस मुहिम में ग्राम प्रधानों को भागीदार बनाया है। संगठन का मानना है कि गिद्धों के संरक्षण के लिए स्थानीय समुदायों को जोड़ना बहुत जरूरी है।

अभियान की शुरुआत

'आरानयक' ने गुरुवार, 21 अगस्त 2025 को एक शिक्षा, जागरूकता और संवेदीकरण अभियान शुरू किया। इस मौके पर कामरूप जिले के छायागांव राजस्व सर्कल कार्यालय में कई ग्राम प्रधान इकट्ठा हुए। छायागांव, गुवाहाटी से लगभग 42 किलोमीटर दक्षिण-पश्चिम में स्थित है।

गिद्धों के लिए मौत का ठिकाना बना कामरूप

'आरानयक' के दीपांकर लहकर ने बताया कि कामरूप जिला असम में गिद्धों के लिए मौत का एक बड़ा ठिकाना बन गया है। इस जिले में सैकड़ों गिद्धों की मौत हुई है, जिनमें से अधिकतर ने कीटनाशक-युक्त शवों को खा लिया था।

ग्राम प्रधानों की अहम भूमिका

छायागांव के सर्कल अधिकारी चिरंजीब दास ने ग्राम प्रधानों की महत्वपूर्ण भूमिका पर जोर दिया। उन्होंने कहा कि प्रभावशाली ग्राम प्रधान गिद्ध संरक्षण के संदेश को गांवों तक पहुंचाने में अहम भूमिका निभा सकते हैं। दास ने बताया, "पिछले 15 सालों में रासायनिक जहर के कारण हमने कम से कम 600 गिद्ध खो दिए हैं। इन पक्षियों के भविष्य के लिए लोगों को शिक्षित करना और उन्हें गिद्ध संरक्षण में शामिल करना बेहद जरूरी है।"

संरक्षण के प्रयास और गिद्धों का महत्व

'आरानयक' अपने प्रमुख अभियानों 'सगुन मित्र' (सगुन का अर्थ असमिया में गिद्ध होता है) और 'नेस्ट गार्डियनशिप' के माध्यम से सभी को इस मुहिम में जोड़ने का प्रयास कर रहा है। उनका मानना है कि जहर-मुक्त भोजन से गिद्धों की आबादी को फिर से बढ़ाने में मदद मिल सकती है। विशेषज्ञों ने ग्राम प्रधानों को समझाया कि गिद्ध "प्रकृति के सफाईकर्मी" के रूप में पर्यावरण को बीमारियों से मुक्त रखकर एक महत्वपूर्ण पारिस्थितिक भूमिका निभाते हैं।

गंभीर होती स्थिति और मौतों की मुख्य वजहें

ओरिएंटल बर्ड क्लब के अनुसार, कामरूप जिले में स्थानीय गिद्धों की आबादी लगभग खत्म हो गई है। कुछ प्रजातियों, जैसे कि पतला-चोंच वाला गिद्ध, की आबादी अपने वितरण क्षेत्रों में 900 से भी कम बची है। मवेशियों के दर्द और बुखार के इलाज के लिए इस्तेमाल की जाने वाली नॉन-स्टेरॉयडल एंटी-इंफ्लेमेटरी (NSAID) दवाएं जैसे डिक्लोफेनाक, एसेक्लोफेनाक, केटोप्रोफेन और निमेसुलाइड को गिद्धों की मौत का एक प्राथमिक कारण माना गया है।

सरकारी प्रतिबंध और चुनौतियां

भारत सरकार ने पशु चिकित्सा उद्देश्यों के लिए इन सभी NSAIDs के उपयोग पर प्रतिबंध लगा दिया है, लेकिन ऑर्गेनोफॉस्फेट और कार्बोसुरन जैसे कीटनाशकों के कारण होने वाली मौतें अभी भी जारी हैं। विशेषज्ञों ने चेतावनी दी है कि गिद्धों की आबादी में गिरावट से मनुष्यों में बीमारियों में वृद्धि हुई है, जिसके कारण देश में प्रति वर्ष लगभग 48,000 मौतें होती हैं।

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