सुप्रीम कोर्ट से पत्रकारों को बड़ी राहत: असम पुलिस की राजद्रोह कार्रवाई पर रोक
सुप्रीम कोर्ट ने पत्रकारों को राजद्रोह मामले में बड़ी राहत दी।


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सुप्रीम कोर्ट ने पत्रकारों को दी सुरक्षा
सुप्रीम कोर्ट ने शुक्रवार (22 अगस्त, 2025) को वरिष्ठ पत्रकार सिद्धार्थ वरदराजन, करण थापर और 'द वायर' ऑनलाइन प्लेटफॉर्म चलाने वाले फाउंडेशन फॉर इंडिपेंडेंट जर्नलिज्म के सदस्यों को बड़ी राहत दी। अदालत ने असम पुलिस की अपराध शाखा द्वारा दर्ज एक एफआईआर (प्रथम सूचना रिपोर्ट) में उनके खिलाफ कोई भी कड़ी कार्रवाई करने पर रोक लगा दी। इस एफआईआर में पत्रकारों पर राजद्रोह के आरोप लगाए गए हैं।
क्या है पूरा मामला?
असम पुलिस की अपराध शाखा ने पत्रकारों पर भारतीय न्याय संहिता (BNS) की धारा 152 के तहत राजद्रोह का आरोप लगाया है। यह धारा "भारत की संप्रभुता, एकता और अखंडता को खतरे में डालने वाले कृत्यों" के लिए दंड का प्रावधान करती है। याचिकाकर्ताओं की वकील, वरिष्ठ अधिवक्ता नित्या रामकृष्णन ने अदालत में कहा कि उनके मुवक्किलों को लगातार एफआईआर दर्ज होने का डर है। पत्रकारों के संगठनों ने भी वरिष्ठ पत्रकारों के खिलाफ राजद्रोह के आरोप लगाए जाने का विरोध किया है।
पहले भी मिली थी गिरफ्तारी से सुरक्षा
यह पहली बार नहीं है जब सुप्रीम कोर्ट ने इन पत्रकारों को सुरक्षा दी है। इससे पहले 12 अगस्त को भी शीर्ष अदालत ने सिद्धार्थ वरदराजन और फाउंडेशन के सदस्यों को असम के मोरीगांव पुलिस स्टेशन में दर्ज एक अन्य एफआईआर में "आसन्न गिरफ्तारी" से बचाया था। वह मामला भी एक लेख के प्रकाशन से जुड़ा था और उसमें भी BNS की धारा 152 का इस्तेमाल किया गया था। याचिकाकर्ताओं ने तर्क दिया है कि BNS का यह प्रावधान दरअसल पुराने भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 124A (राजद्रोह) जैसा ही है। IPC की धारा 124A के संचालन पर सुप्रीम कोर्ट ने पहले ही रोक लगा रखी है और इसे संवैधानिक पीठ के पास समीक्षा के लिए भेजा है।
बार-बार एफआईआर दर्ज करने का आरोप
नित्या रामकृष्णन ने अदालत में कहा, "वे हम पर लगातार एफआईआर दर्ज कर रहे हैं।" उन्होंने बताया कि अपराध शाखा की एफआईआर में पेशी के लिए समन भी 12 अगस्त को ही जारी किया गया था, यानी उसी दिन जब शीर्ष अदालत ने उन्हें मोरीगांव मामले में गिरफ्तारी से सुरक्षा दी थी। रामकृष्णन ने यह भी बताया कि याचिकाकर्ताओं को अपराध शाखा द्वारा दर्ज दूसरी एफआईआर के बारे में मोरीगांव मामले में अदालत से सुरक्षा मिलने के बाद ही समन के ज़रिए पता चला। इस पर न्यायमूर्ति ने टिप्पणी की, "हम उम्मीद करते हैं कि हर कोई कानून का पालन करेगा।"
कानून के दुरुपयोग की आशंका पर चिंता
न्यायमूर्ति सूर्यकांत और न्यायमूर्ति जॉयमाल्य बागची की पीठ ने इस मामले की सुनवाई की। अदालत ने यह भी सवाल उठाया था कि क्या भारतीय न्याय संहिता (BNS) की धारा 152 के "दुरुपयोग की संभावना" खुद कानून को असंवैधानिक घोषित करने का आधार हो सकती है। पिछली सुनवाई में रामकृष्णन ने कहा था कि धारा 152 के शब्दों का इस्तेमाल अस्पष्ट तरीके से किया गया है। उन्होंने तर्क दिया था कि इसकी अस्पष्टता अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, खासकर पत्रकारों की स्वतंत्रता को दबाने की अपार क्षमता रखती है।
पुराने फैसलों का हवाला
न्यायमूर्ति बागची ने उस समय रामकृष्णन से सहमति जताई थी कि किसी दंडात्मक प्रावधान में अस्पष्टता उसे चुनौती देने का एक वैध आधार है। उन्होंने उदाहरण देते हुए बताया था कि कैसे शीर्ष अदालत ने सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम की धारा 66A को उसके अस्पष्ट शब्दों के कारण रद्द कर दिया था, जिसका परोक्ष रूप से अधिकारियों द्वारा असंतोष को कुचलने के लिए गिरफ्तारी के हथियार के रूप में उपयोग किया जाता था। न्यायमूर्ति बागची ने यह भी कहा था कि केदार नाथ सिंह मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने स्पष्ट रूप से परिभाषित किया था कि राजद्रोह को धारा 124A के तहत तब तक नहीं लगाया जा सकता जब तक कि यह स्पष्ट प्रमाण न हो कि शब्दों या कार्यों से हिंसा भड़की हो। याचिकाकर्ताओं ने धारा 152 की वैधता को भी चुनौती दी है।