राज्यपालों द्वारा विधेयक रोके जाने पर क्या सुप्रीम कोर्ट चुप रहे? CJI ने केंद्र से पूछा

CJI ने केंद्र से पूछा कि क्या सुप्रीम कोर्ट बेबस रहे?

Published · By Tarun · Category: Politics & Government
राज्यपालों द्वारा विधेयक रोके जाने पर क्या सुप्रीम कोर्ट चुप रहे? CJI ने केंद्र से पूछा
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सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार से एक तीखा सवाल पूछा है। भारत के मुख्य न्यायाधीश (CJI) बी.आर. गवई ने गुरुवार (21 अगस्त, 2025) को केंद्र से पूछा कि क्या सर्वोच्च न्यायालय को "संविधान के संरक्षक" के रूप में अपनी भूमिका को निलंबित कर देना चाहिए और बेबस बैठना चाहिए, जबकि राज्यपाल राज्य विधानसभाओं द्वारा पारित विधेयकों को सालों तक रोके रखकर उन्हें निष्क्रिय कर दें और लोगों की लोकतांत्रिक इच्छा को विफल करें।

राष्ट्रपति संदर्भ पर सुनवाई

यह सवाल CJI गवई की अध्यक्षता वाली पांच-न्यायाधीशों की एक राष्ट्रपति संदर्भ पीठ की सुनवाई के दौरान आया। CJI ने इस संदर्भ में तमिलनाडु के राज्यपाल का उदाहरण दिया, जिन्होंने कई महत्वपूर्ण राज्य विधेयकों को लगभग चार साल तक बिना किसी स्पष्टीकरण के रोके रखा था।

केंद्र सरकार का पक्ष: सॉलिसिटर जनरल की दलीलें

केंद्र सरकार की ओर से पेश हुए सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने अदालत में अपनी दलीलें रखीं। उन्होंने कहा कि सर्वोच्च न्यायालय को अपने दायरे में रहना चाहिए, जैसा कि राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (NJAC) के फैसले में कहा गया था कि सरकार के हर अंग - विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका - को अपने क्षेत्र का पालन करना चाहिए। मेहता ने यह भी तर्क दिया कि देश की शासन प्रणाली पदानुक्रमित (hierarchical) नहीं है।

'न्यायालय हर समस्या का समाधान नहीं'

मेहता ने सुप्रीम कोर्ट से कहा कि राज्य विधेयकों में देरी जैसे मुद्दों को अदालती आदेशों के बजाय राजनीतिक स्तर पर हल किया जाना चाहिए। उन्होंने कहा कि राज्यपाल जैसे संवैधानिक प्राधिकारी की निष्क्रियता को राजनीतिक दायरे में बेहतर ढंग से निपटाया जा सकता है, जहां मुख्यमंत्री प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति से मिलकर राज्यपालों को कार्रवाई के लिए राजी कर सकते हैं। सॉलिसिटर जनरल ने जोर देकर कहा कि सुप्रीम कोर्ट देश में हर समस्या का समाधान करने वाला एकमात्र मंच नहीं है और हर समस्या को न्यायिक आदेश से हल नहीं किया जा सकता।

'राज्यपाल पर समय सीमा लागू नहीं'

मेहता ने दलील दी कि समय सीमा जिला कलेक्टर जैसे वैधानिक अधिकारियों पर लागू हो सकती है, लेकिन राष्ट्रपति और राज्यपाल जैसे संवैधानिक शक्तियों पर नहीं। उन्होंने कहा कि राज्यपाल का पद विशिष्ट है, क्योंकि उनकी नियुक्ति केंद्र सरकार करती है, लेकिन वे राज्य विधायिका का भी एक अभिन्न अंग होते हैं। उन्होंने यह भी कहा कि किसी राज्यपाल के राज्य विधेयक को मंजूरी देने में देरी के कई कारण हो सकते हैं, जिनमें कभी-कभी राजनीतिक या लोकतांत्रिक कारण भी शामिल होते हैं। मेहता ने सवाल उठाया कि जब संविधान में कोई समय सीमा मौजूद नहीं है, तो सुप्रीम कोर्ट कैसे इसमें हस्तक्षेप कर सकता है और समय सीमा निर्धारित कर सकता है।

CJI की कड़ी प्रतिक्रिया: 'क्या अदालत बेबस रहे?'

सॉलिसिटर जनरल की दलीलों पर मुख्य न्यायाधीश गवई ने कड़ी प्रतिक्रिया दी। उन्होंने पूछा कि अगर किसी विशेष कार्य (विधेयक को मंजूरी देना) राज्यपाल को सौंपा गया है, और वह सालों तक विधेयक को रोके रखते हैं, तो क्या यह भी इस अदालत की न्यायिक समीक्षा की शक्ति से परे होगा? CJI ने याद दिलाया कि जब सुप्रीम कोर्ट ने पहले न्यायिक समीक्षा की शक्ति को सीमित करने वाले 42वें संवैधानिक संशोधन अधिनियम को 'संविधान की मूल संरचना' का उल्लंघन मानते हुए रद्द कर दिया था, तो क्या अब वह राज्यपाल की निष्क्रियता के सामने बेबस है?

"हम सरकार को सूक्ष्म स्तर पर प्रबंधित करने का इरादा नहीं रखते। हम कभी हस्तक्षेप नहीं करेंगे। हम यह नहीं पूछ सकते कि किसी जिले का प्रशासन कैसे किया जाना है... लेकिन अगर कोई गलत हुआ है, तो उसका उपाय भी होना चाहिए... यह अदालत संविधान की संरक्षक है।"

अन्य न्यायाधीशों की महत्वपूर्ण टिप्पणियां

न्यायमूर्ति नरसिम्हा ने कहा कि यदि राज्यपाल को विधेयक पर सहमति देने के लिए कोई बाहरी समय सीमा निर्धारित नहीं की जाती है, तो राज्य के विधेयक अनिश्चितता की स्थिति में लटके रहेंगे। उन्होंने सवाल किया, "हालांकि आप एक समय सीमा निर्दिष्ट नहीं कर सकते, लेकिन साथ ही, प्रक्रिया (विधेयकों पर सहमति देने की) काम करने का कोई तरीका होना चाहिए। क्या यह ऐसी स्थिति हो सकती है जहां राज्यपाल विधेयक पर कार्य न करने का विकल्प चुनते हैं तो इसका मतलब 'पूर्ण विराम' हो जाए... इसके आगे कुछ भी नहीं?"

न्यायमूर्ति सूर्यकांत ने भी टिप्पणी की कि राज्यपालों के कार्य करने या न करने के निर्णय अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग होते हैं। उन्होंने पूछा कि क्या केंद्र, पीड़ित राज्यों को राज्यपालों की निष्क्रियता के खिलाफ अदालत का दरवाजा खटखटाने से रोक रहा है।

'राज्यपाल लोगों के प्रति जवाबदेह नहीं'

सॉलिसिटर जनरल ने कहा कि विधेयक पर सहमति में देरी जैसे मुद्दे अदालत द्वारा हल करने योग्य नहीं हैं। उन्होंने कहा कि इसका समाधान राजनीतिक क्षेत्र में है जहां निर्वाचित प्रतिनिधि लोगों के प्रति जवाबदेह होते हैं, कम से कम हर पांच साल में। इस पर CJI ने महत्वपूर्ण बात कही, "लेकिन राज्यपाल लोगों के प्रति जवाबदेह नहीं है।"

लोकतांत्रिक व्यवस्था पर सवाल

मुख्य न्यायाधीश गवई ने अंत में कहा कि बेंच केंद्र के उन तर्कों को तो समझ सकती है जो राज्यपालों और राष्ट्रपति को "समयबद्ध कार्यक्रम" और 'मानद सहमति' देने के खिलाफ हैं, लेकिन वह ऐसी स्थिति को स्वीकार नहीं कर सकती जिसमें राज्यपाल राज्य के विधेयकों पर चार साल तक बैठे रहें। उन्होंने कहा, "फिर सरकार की लोकतांत्रिक व्यवस्था का क्या होगा? किसी विशेष राज्य की विधायिका के दो-तिहाई बहुमत की इच्छा का क्या होगा? हम उस राज्यपाल के सवाल पर हैं, चाहे वह कितना भी उच्च क्यों न हो, जो एक सक्षम विधायिका द्वारा पारित विधेयकों पर बैठा है।"

केंद्र का अंतिम जवाब

सॉलिसिटर जनरल मेहता ने अपनी दलीलें समाप्त करते हुए एक उदाहरण दिया और पूछा कि क्या राष्ट्रपति सुप्रीम कोर्ट में लंबे समय से लंबित मामलों का फैसला कर सकते हैं। उन्होंने कहा, "ऐसा नहीं हो सकता कि हर समस्या का समाधान केवल इस अदालत के दरवाजे पर ही हो, और राजनीतिक व लोकतांत्रिक समाधान, समाधान न हों।"

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