ईमानदार अधिकारियों को बचाना जरूरी: सुप्रीम कोर्ट

सुप्रीम कोर्ट ने भ्रष्टाचार निरोधक कानून में संशोधन पर अहम टिप्पणी की।

Published · By Bhanu · Category: Politics & Government
ईमानदार अधिकारियों को बचाना जरूरी: सुप्रीम कोर्ट
Bhanu
Bhanu

bhanu@chugal.com

क्या है पूरा मामला?

सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में एक अहम टिप्पणी करते हुए कहा कि भ्रष्टाचार निरोधक कानून में ऐसा प्रावधान होना चाहिए जिससे ईमानदार सरकारी अधिकारियों को 'राजनीतिक बदले की भावना' का शिकार होने से बचाया जा सके, खासकर सरकार बदलने के बाद। कोर्ट भ्रष्टाचार निरोधक अधिनियम, 1988 की धारा 17A को चुनौती देने वाली एक याचिका पर सुनवाई कर रहा था। यह धारा सार्वजनिक अधिकारियों के खिलाफ उनके आधिकारिक कर्तव्यों के निर्वहन में की गई सिफारिशों के लिए सक्षम प्राधिकारी की पूर्व स्वीकृति के बिना किसी भी जांच या पड़ताल पर रोक लगाती है।

कानून की धारा 17A

यह धारा जुलाई 2018 में लागू की गई थी। इसके तहत, किसी भी सरकारी अधिकारी के खिलाफ उसके आधिकारिक काम के संबंध में की गई सिफारिशों को लेकर कोई 'जांच या पड़ताल' तब तक शुरू नहीं की जा सकती, जब तक सक्षम अधिकारी से पहले अनुमति न मिल जाए।

याचिकाकर्ता की दलील

गैर-लाभकारी संगठन 'सेंटर फॉर पब्लिक इंटरेस्ट लिटिगेशन' (CPIL) ने अधिवक्ता प्रशांत भूषण के माध्यम से धारा 17A को चुनौती दी है। प्रशांत भूषण ने तर्क दिया कि यह प्रावधान भ्रष्टाचार निरोधक कानून को कमजोर करता है क्योंकि 'सक्षम प्राधिकारी' (जो आमतौर पर सरकार होती है) से अक्सर अनुमति नहीं मिलती। उन्होंने कहा कि यह धारा सरकार को 'अपने ही मामले में न्यायाधीश' बना देती है और इसे रद्द किया जाना चाहिए। भूषण ने बताया कि केंद्रीय जांच ब्यूरो (CBI) से जुड़े लगभग 40% मामलों में ही धारा 17A के तहत जांच के लिए पूर्व अनुमति मिल पाती है, जबकि राज्य सरकारें आमतौर पर यह अनुमति नहीं देतीं। उन्होंने सुझाव दिया कि पूर्व अनुमति देने का अधिकार किसी स्वतंत्र निकाय को दिया जाना चाहिए।

सुप्रीम कोर्ट की अहम टिप्पणी

न्यायमूर्ति बी.वी. नागरत्ना की अध्यक्षता वाली पीठ, जिसमें न्यायमूर्ति के.वी. विश्वनाथन भी शामिल थे, ने इस मामले में अहम टिप्पणियां कीं। न्यायमूर्ति के.वी. विश्वनाथन ने कहा, "ईमानदार अधिकारी, जो सरकार बदलने के बाद लाइन में नहीं चलते, उन्हें सुरक्षा मिलेगी।" पीठ ने कहा कि वे "बच्चे को नहाने के पानी के साथ बाहर फेंकने" (यानी पूरे कानून को रद्द करने) के बजाय यह देखेगी कि क्या संतुलन बनाया जा सकता है।

न्यायमूर्ति विश्वनाथन ने यह भी कहा, "ऐसे अधिकारी हैं जो देश के लिए अपना जीवन समर्पित कर देते हैं। हम यह कैसे सुनिश्चित करें कि वे अपने आधिकारिक कार्यों या कर्तव्य के दौरान की गई सिफारिशों के लिए तुच्छ मुकदमों का शिकार न बनें?" न्यायमूर्ति नागरत्ना ने टिप्पणी की कि कोर्ट इस मुद्दे को इस पूर्वधारणा के साथ नहीं देख सकता कि 'सभी अधिकारी बेईमान हैं या सभी ईमानदार हैं।'

उन्होंने कहा, "ईमानदार अधिकारियों को संरक्षित किया जाना चाहिए जबकि बेईमानों की जांच होनी चाहिए। ईमानदार अधिकारियों को अपना काम 'दामोक्लेस की तलवार' (खतरे) के साये में नहीं करना चाहिए। कोई भी आधिकारिक फैसला लेने से पहले उनके हाथ नहीं कांपने चाहिए, नहीं तो हमें 'पूर्ण नीतिगत पंगुता' (पॉलिसी पैरालिसिस) का खतरा होगा।" न्यायाधीश ने स्पष्ट किया कि किसी प्रावधान को केवल इसलिए गलत नहीं ठहराया जा सकता क्योंकि उसके लागू होने से दुरुपयोग हो सकता है। उन्होंने कहा कि "किसी प्रावधान का जमीन पर क्रियान्वयन उसके संवैधानिक होने के सवाल से काफी अलग है। अंततः, संतुलन बनाना होगा।"

सरकार का क्या है पक्ष?

केंद्र सरकार की ओर से पेश हुए सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता और अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल ऐश्वर्या भाटी ने कहा कि धारा 17A के बचाव के बिना, किसी भी सरकारी अधिकारी के खिलाफ कोई भी व्यक्ति निजी रंजिश के चलते किसी गैर-सरकारी संगठन (NGO) के माध्यम से मामला दर्ज करवा सकता है।

जब न्यायमूर्ति विश्वनाथन ने कहा कि सरकार अपने "पसंदीदा अधिकारियों" (ब्लू-आइड बॉयज एंड गर्ल्स) के खिलाफ शायद ही कभी अनुमति देगी, तो मेहता ने जवाब दिया कि यह बात शासन के तीनों अंगों में सच है। उन्होंने कहा कि ऐसे मामलों को अदालत में 'मामला-दर-मामला' चुनौती दी जा सकती है। उन्होंने कोर्ट से आग्रह किया कि वह विधायिका का काम न करे और धारा 17A को रद्द न करे। उन्होंने कहा कि प्रशांत भूषण सुप्रीम कोर्ट से विधायी कार्य करने के लिए नहीं कह सकते।

सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में अपना फैसला सुरक्षित रख लिया है।

Related News