मानव कौल का नाटक 'पार्क': पहचान की राजनीति पर 18 साल बाद भी दमदार

मानव कौल का नाटक 'पार्क' 18 साल बाद भी प्रासंगिक है।

Published · By Tarun · Category: Entertainment & Arts
मानव कौल का नाटक 'पार्क': पहचान की राजनीति पर 18 साल बाद भी दमदार
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मानव कौल का चर्चित नाटक 'पार्क' अपने पहले मंचन के 18 साल बाद भी दर्शकों के बीच उतना ही प्रासंगिक बना हुआ है। हाल ही में दिल्ली में इसका मंचन किया गया, जिसने एक बार फिर भाषा अल्पसंख्यकों, शहरी प्रवासियों, कश्मीर मुद्दे और तिब्बत के अधिग्रहण जैसे कई गंभीर सवालों को उठाया।

आज भी क्यों है प्रासंगिक?

यह नाटक मौजूदा दौर से बखूबी जुड़ता है, जब शहरीकरण जगहों पर अतिक्रमण कर रहा है, जब जातीय समूहों को निशाना बनाया जा रहा है और जब संघर्षों के कारण लोगों को पलायन के लिए मजबूर किया जा रहा है। मानव कौल द्वारा लिखित और निर्देशित इस नाटक का हाल ही में नई दिल्ली के कमानी ऑडिटोरियम में प्रदर्शन किया गया। इसमें शुभरज्योति बरात, सुमित व्यास और गोपाल दत्त जैसे कलाकार मुख्य भूमिका में थे।

क्या है 'पार्क' की कहानी?

नाटक की कहानी तीन ऐसे पुरुषों के इर्द-गिर्द घूमती है, जो किसी न किसी परेशानी से जूझ रहे हैं। एक दोपहर वे एक सुनसान पार्क में शांति से कुछ समय बिताने की तलाश में पहुंचते हैं, लेकिन हर कोई पहले से ही कब्जा की हुई एक बेंच पर अपना दावा ठोकने लगता है। पार्क में तीनों बेंच एक ही दिशा में हैं और उनसे एक जैसा ही नज़ारा दिखता है। 'पार्क' नाटक बस तीन किरदारों के जरिए ही इस बात को उजागर करता है कि इंसान कैसे जगह और उसके narrative (कथा) पर नियंत्रण हासिल करना चाहता है। शुरुआत में यह हल्के-फुल्के अंदाज में जगह को लेकर बहस लगती है, लेकिन धीरे-धीरे यह बेहद गंभीर रूप ले लेती है। सार्वजनिक जगह को लेकर हुआ यह झगड़ा जगह की राजनीति, उसके एक्सेस या उसे deny करने पर एक गहन पड़ताल में बदल जाता है।

नाटक उठाता है ये सवाल

  • एक समाज में पूरी और समान सदस्यता का क्या मतलब है?
  • किसके दावे या अधिकार को दूसरे से बेहतर माना जाता है?
  • किसी जगह का असली हकदार कौन है – वह मूल निवासी जो कहीं और चला गया, या वह प्रवासी जो वहां लंबे समय से रह रहा है?
  • वह जो वहां की भाषा बोलता है, या वह जो अपने पैसे और रुतबे से योगदान देता है?
  • वह जिसने वहां पढ़ाई की, या वह जो वहां काम करता है?
  • वह जिसका उस जगह से कोई इतिहास जुड़ा है, या वह जिसका भविष्य उस जगह पर निर्भर करता है?

नाटक में शुभरज्योति बरात ने एक सरकारी अधिकारी का किरदार निभाया है, जिसे दोपहर में सोने के लिए पार्क में छायादार जगह की सख्त जरूरत है। उनका किरदार इस बात से सहमत है कि जगह का मुद्दा हमेशा से रहा है और प्रवासन तो इतिहास से भी पुराना है।

मानव कौल का कहना है

लेखक और निर्देशक मानव कौल कहते हैं, "यह अजीब लगता है कि जो बातें मुझे 2007 में नाटक लिखते समय परेशान करती थीं, वे अब तब से कहीं ज्यादा प्रासंगिक हैं। मुझे नहीं लगता कि यह समाज, देश या पूरी दुनिया के लिए एक अच्छा संकेत है।" जब उनसे पूछा गया कि क्या वे दर्शकों को कोई संदेश देना चाहते हैं, तो मानव कौल कहते हैं, "मेरी रचनाएं उस सब की प्रतिक्रिया हैं जो मैं देखता हूं – जो चीजें मैं पढ़ता हूं, जिनकी मैं कद्र करता हूं।" उनका मानना है कि लेखन वास्तविकता और उसकी बेचैनी का ही परिणाम है। मानव के लेखन में हल्की-फुल्की हास्य-व्यंग्य की कमी नहीं है, चाहे वह अजनबी लोगों की 'जिज्ञासा' हो, सार्वजनिक जगहों पर दूसरों की बातें सुनना हो, या व्यक्तिगत सीमाओं को लगातार खींचना हो।

कलाकारों की राय

अभिनेता सुमित व्यास, जिन्होंने एक विस्थापित कानून ग्रेजुएट का किरदार निभाया है, कहते हैं, "आप नाटक देखते हुए हंस सकते हैं, लेकिन जब आप इस पर गहराई से सोचते हैं, तो आपको एहसास होता है कि यह एक दुखद वास्तविकता का प्रतिबिंब है।" उनका किरदार मांग करता है कि अन्याय करने वालों को भी उतना ही विस्थापित किया जाए, यानी न्याय बराबर अनुपात में मिलना चाहिए। सुमित बताते हैं, "यह इंसानी व्यवहार को दर्शाता है – पार्क में तीन लोग एक 'आदर्श' जगह के लिए लड़ रहे हैं, जबकि वहां तीन बेंच मौजूद हैं और वे आराम से कहीं भी बैठ सकते थे।" हालांकि, वे सोचते हैं कि क्या यह नाटक कभी अप्रासंगिक होगा और जोड़ते हैं: "भले ही हम इसे जीवन भर करते रहें, ये समस्याएं बनी रहेंगी।"

आज भी क्यों है 'पार्क' महत्वपूर्ण?

समाजशास्त्री भले ही आधुनिक जीवन में सब कुछ तरल होने की बात करते हों, लेकिन शरीर की राजनीति (body politics) कभी खत्म नहीं होगी। पहचान हमेशा बहस का एक अहम विषय रहेगी। 'पार्क' नाटक राजनीतिक और सांस्कृतिक रूप से जागरूक कहानी कहने की कला को बरकरार रखता है। यह क्षेत्रीय, राष्ट्रीय और वैश्विक स्तर पर मौजूद संकटों के प्रति सचेत है और उन्हें संवेदनशीलता से दिखाता है, हालांकि सीधे तौर पर नहीं। यह इस बात का एक प्रतिबिंब और एक याद दिलाता है कि राजनीति मानव जीवन का एक ऐसा हिस्सा है जिसे नकारा नहीं जा सकता, चाहे वह रोजमर्रा की जिंदगी में हो या बड़े पैमाने पर।

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