भारत में भूजल और ऊर्जा की बढ़ती मांग: क्या भूकंप का खतरा बढ़ा रही हैं इंसानी गतिविधियां?

भारत में भूजल और ऊर्जा की बढ़ती मांग से भूकंप का खतरा बढ़ रहा है।

Published · By Tarun · Category: Environment & Climate
भारत में भूजल और ऊर्जा की बढ़ती मांग: क्या भूकंप का खतरा बढ़ा रही हैं इंसानी गतिविधियां?
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भारत में पानी और ऊर्जा की बढ़ती मांग के साथ-साथ मानव-प्रेरित भूकंपों का खतरा भी सामने आ रहा है। जब जमीन से बड़ी मात्रा में पानी निकाला जाता है, तो धरती के नीचे का दबाव कम हो जाता है, जिससे सतह पर झटके महसूस होते हैं।

क्या हैं मानव-प्रेरित भूकंप?

भूकंप आमतौर पर प्राकृतिक होते हैं, लेकिन हमेशा नहीं। कभी-कभी कुछ प्राकृतिक कारक इंसानी गतिविधियों के साथ मिलकर भूकंप का कारण बन सकते हैं। ऐसी मानवीय गतिविधियों से आने वाले भूकंपों को "मानव-प्रेरित भूकंप" कहा जाता है। 2017 में 'सीस्मोलॉजिकल रिसर्च लेटर्स' में छपे एक अनुमान के अनुसार, पिछले 150 सालों में दुनिया भर में 700 से अधिक मानव-प्रेरित भूकंप दर्ज किए गए हैं, और इनकी संख्या बढ़ती जा रही है।

कैसे आते हैं ऐसे भूकंप?

विशेषज्ञों के मुताबिक, खनन, भूजल निकालना, बांध के पीछे पानी जमा करना, जमीन में तरल पदार्थ डालना, ऊंची इमारतें बनाना और तटीय संरचनाएं बनाना जैसी मानवीय गतिविधियां भूकंपीय गतिविधि को बढ़ा सकती हैं। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि बार-बार धरती की ऊपरी परत पर दबाव डालने और हटाने से टेक्टोनिक प्लेटों के बीच तनाव पैदा होता है, जिससे भूकंपीय गतिविधि में बदलाव आता है।

कोयना बांध और दिल्ली-एनसीआर का उदाहरण

1967 में महाराष्ट्र के कोयनानगर में 6.3 तीव्रता के भूकंप से भारी तबाही हुई थी। बाद के कई अध्ययनों में इस आपदा का कारण पास के कोयना हाइड्रोइलेक्ट्रिक बांध में पानी का अत्यधिक जमाव बताया गया। इस भूकंप में 180 से ज़्यादा लोगों की जान गई थी और हजारों घर तबाह हो गए थे।

हाल ही में, 2021 के 'साइंटिफिक रिपोर्ट्स' अध्ययन में बताया गया कि दिल्ली-एनसीआर (राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र) में दर्ज किए गए उथले भूकंपों का संबंध खेती और पीने के पानी के लिए अत्यधिक भूजल निकासी से हो सकता है। एनआईटी राउरकेला के प्रोफेसर भास्कर कुंडू, जो इस अध्ययन के लेखकों में से एक हैं, ने बताया, "2003 से 2012 के बीच जब जल स्तर काफी गिर गया था, तब भूकंपीय गतिविधि में वृद्धि देखी गई। 2014 के बाद जब जल स्तर स्थिर हुआ, तो भूकंपीय गतिविधि कम हो गई।"

भू-वैज्ञानिक सी.पी. राजेंद्रन के अनुसार, दिल्ली-एनसीआर क्षेत्र में आने वाले भूकंप आमतौर पर हल्के होते हैं, जिनकी अधिकतम तीव्रता 4.5 तक होती है। हालांकि, यह 5.5 तक भी जा सकती है, जो दिल्ली जैसे घनी आबादी वाले शहर के लिए खतरनाक हो सकता है, क्योंकि दिल्ली कई फॉल्टलाइन पर स्थित है और भूकंपीय जोखिम श्रेणी 4 में आती है।

गंगा के मैदानी इलाकों में भी खतरा

डॉ. राजेंद्रन ने बताया कि भूजल निकासी से होने वाले भूकंप का खतरा पूरे गंगा के मैदानी इलाकों में फैला हुआ है, जहां जल स्तर तेजी से गिर रहा है। इसकी मुख्य वजह यह है कि क्षेत्र में बोई जाने वाली फसलों को अब भी बड़ी मात्रा में पानी की जरूरत होती है और बारिश से यह प्यास बहुत कम बुझ पाती है। उन्होंने कहा कि भूजल निकासी और उसके पुनर्भरण की दर को वैज्ञानिक तरीके से प्रबंधित करने की जरूरत है, साथ ही क्षेत्र की भूकंपीय गतिविधि को भी ध्यान में रखना चाहिए।

बांधों और ऊर्जा उत्पादन से जुड़ा जोखिम

मुल्लापेरियार बांध, जो केरल के इडुक्की में स्थित है और दिल्ली की तरह भूकंप-प्रवण क्षेत्र में आता है, के आसपास भी भूकंपीय गतिविधि में वृद्धि दर्ज की गई है। नेशनल जियोफिजिकल रिसर्च इंस्टीट्यूट के मुख्य वैज्ञानिक विनीत के. गहलोत ने कहा कि अमेरिका ने जलाशय-प्रेरित भूकंपों को देखते हुए बांधों को कितनी तेजी से भरा और खाली किया जाना चाहिए, इसके लिए नियम लागू किए हैं। भारत में भी भूकंपों को रोकने के लिए ऐसे नियमों को लागू किया जाना चाहिए। उन्होंने यह भी कहा कि किसी क्षेत्र में बांध बनाने से पहले वहां की भूकंपीय गतिविधियों का ठीक से मूल्यांकन किया जाना चाहिए।

डॉ. राजेंद्रन के अनुसार, हिमालय जैसे भूकंपीय रूप से सक्रिय क्षेत्रों में बड़े बांधों की सिफारिश नहीं की जाती है, क्योंकि पानी का भार और रिसाव स्थानीय तनाव प्रणाली को बदल सकता है।

भारत की बढ़ती ऊर्जा मांग भी इस तरह की आपदा के जोखिम को बढ़ाती है। डॉ. गहलोत ने बताया, "हमारी जरूरतों को पूरा करने के लिए ऊर्जा निकालने के तरीके, चाहे वह तेल हो या जलविद्युत, हमारी पृथ्वी पर महत्वपूर्ण जोखिम डालते हैं।" फ्रैक़िंग, जिसमें चट्टानों को अलग करने और तेल व प्राकृतिक गैस निकालने के लिए तरल पदार्थ जमीन में डाले जाते हैं, से भी भूकंप आने का खतरा होता है। भारत में इस समय छह राज्यों में 56 फ्रैक़िंग साइट्स हैं।

पालघर और जलवायु परिवर्तन का संबंध

महाराष्ट्र के पालघर जिले में, जहां 2018 से लगातार भूकंप आ रहे हैं, विशेषज्ञों ने कहा है कि प्लेट विरूपण एकांत रूप से हो रहा है। भूकंप विशेषज्ञों के शुरुआती निष्कर्षों से संकेत मिला था कि इसका कारण बारिश के कारण तरल पदार्थ का विस्थापन हो सकता है। डॉ. कुंडू ने कहा कि भारत भर में ऐसे क्षेत्रों में, जहां एकांत प्लेट विरूपण हो रहा है, भूकंपीय गतिविधि की अधिक सटीक निगरानी और ट्रैक करने के लिए मजबूत भूकंपीय नेटवर्क स्थापित करने की आवश्यकता है।

वैज्ञानिकों ने यह भी कहा है कि जलवायु परिवर्तन अप्रत्यक्ष रूप से भूकंपों की घटना को प्रभावित कर सकता है और समय के साथ उन्हें अधिक बारंबार बना सकता है। ग्लोबल वार्मिंग के कारण ग्लेशियरों के पिघलने से अंटार्कटिका और ग्रीनलैंड के आसपास भूकंप आने की बात सामने आई है। जलवायु परिवर्तन के कारण बारिश के पैटर्न में बदलाव से सतह पर पानी के भार की प्रक्रिया भी प्रभावित होती है। उदाहरण के लिए, अचानक भारी बारिश टेक्टोनिक प्लेटों के बीच जमा तनाव को बदल सकती है और भूकंपीय गतिविधि को बढ़ा सकती है। पश्चिमी घाट की सह्याद्री श्रेणी के आसपास का क्षेत्र इसी कारण से भारी बारिश के कारण झटके दर्ज कर रहा है।

इसी तरह, लंबे समय तक सूखा भी भूकंपीय फॉल्ट्स को फिर से सक्रिय कर सकता है। ऐसा ही एक सूखा-प्रेरित भूकंप 2014 में कैलिफोर्निया में दर्ज किया गया था।

विशेषज्ञों की सावधानी

डॉ. कुंडू के अनुसार, "भूकंप का खतरा उन सभी स्थानों पर मौजूद नहीं है जहां भूजल की कमी है या बड़े बांध हैं। इन्हें केवल उन क्षेत्रों में दर्ज किया गया है जो फॉल्टलाइन पर स्थित हैं या प्लेट विरूपण प्रक्रियाओं का सामना कर रहे हैं।" उन्होंने यह भी कहा कि वर्तमान में, प्लेटों के साथ तनाव के जमा होने की दर और इस तनाव का वह हिस्सा जो मानवीय गतिविधियों के कारण है, इसका पता लगाना संभव नहीं है। इसलिए विशेषज्ञों ने यह निष्कर्ष निकालने के खिलाफ चेतावनी दी है कि ऐसी गतिविधियां अकेले झटकों या भूकंपों के लिए जिम्मेदार हैं। अब तक के शोध से केवल यह पता चला है कि ये गतिविधियां इन गतिविधियों का कारण बनने वाली टेक्टोनिक प्रक्रियाओं को स्थगित या तेज कर सकती हैं।

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